कहाँ थी तू, जब तक़दीरें बट रहीं थीं?
किस सोच में डूबी, किस कोने में खड़ी थी?
कैसे फिसल गई हाथों से, वो जो लकीर तेरी थी?
अब रोती है पगली, कि क्यूँ सब वीरान लगता है,
पर ग़लती तो तेरी थी, तूने ही कहाँ ध्यान रखा था?
जो ज़ाहिर था ज़माने पर, क्या तुझको वो ज्ञान न था?
अब आँसुओं से क्या होगा, जब सब कुछ छोड़ जाने का वक़्त आया है।
समय रहते तूने अपने हक़ में कोई ज़िद न की,
अब क्या ज़िद करेगी भला, जब तेरी कोई बात ही न रही?
शायद तेरे हिस्से में बस यही बेबसी थी।
क्या तू मगरूर थी, जो ये सब तेरा गुरूर तोड़ने को हुआ?
किसी को लगा होगा ये तेरा अभिमान था,
पर तूने तो बस दिल से हर कोशिश को जिया।
तक़दीर में होता, तो सब हासिल होता,
तक़दीर ही न थी, तो कुछ भी न मिला।
कोशिश तो पूरी थी, पर किसी का साथ न था,
शायद तू उतनी अच्छी न थी, या किसी को भाया तेरा साथ न था।
खैर, जो भी हो, तूने ये वक़्त गुज़ार लिया,
किसी बुरे सपने की तरह,
इस ज़िन्दगी को जी लिया।
अब बस रुलाना है उसे, जिसने तुझे तक़दीर देने से इनकार किया।
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