कितनी प्यारी थीं वो हसरतें मेरी,
न महलों की चाह थी, न गाड़ियों के घेरों की।
उनमें बसता था बस ढेर सारा प्यार,
एक छोटा सा संसार, मेरा अपना घर-बार।
रोज़मर्रा की इस आम सी ज़िन्दगी में,
एक प्यारा सा सुकून हो अपनी बंदगी में।
कि हर सुबह जब भी अपनी आँखें खोलूँ,
चंद ख़ास चेहरों को अपने सामने देखूँ।
कुछ लम्हें ऐसे हों जो इस जीवन को,
और भी हसीन और यादगार बना जाएँ।
जैसे बर्फ की सुंदर वादियों के बीच,
गर्म चाय की चुस्कियाँ मिल जाएँ।
पर इन सपनों का क्या, इन्हें तो,
बस तन्हाइयों में ही देखा है।
कुछ हकीकतें सपनों से बड़ी हैं बेशक,
पर वो सुकून कहाँ जो इनमें देखा है।
काश मेरे सपने भी उन चीज़ों जैसे होते,
जिन्हें दौलत से खरीदा जा सकता।
तो मैं भी एक-एक कर के,
अपना हर ख्वाब पूरा कर लेती।
मेरे सपने तो बस अधूरे ही रह गए,
ये किसी बाज़ार में बिकते नहीं।
मुझे अब अकेले ही इन्हें ताउम्र देखना है,
बस इस एहसास के
साथ, कि ये कभी पूरे होंगे नहीं।
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